पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३६४

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शिथिल गात, हो रहे अनेको विकट धात-प्रतियात, यानी किससे कहे, बाहो ता, अपने मन की बात' कुसमय में लप झा करने लग गयो ज्योति अमुलाती प्रिय, धीमी पड़ रही आज मेरे प्रदीप की बाती । तुम प्रकाशपति, तुम दिन मणिपति, सतत सनातन ज्योतिपते । अनल प्रयाहक, हे जग पावक, अग्निमते । निज प्रचण्ड किरणागलियो से उममा वो मेरी बाती, फिर से इसे बना दो प्रिय, तुम अग्नि यरुण-धुन-मदमाती। डिस्ट्रिक्ट जेल, बरली २६ जनवरी १६३३ सशय-दाहक घनश्याम सूर पधारे राजन यहाँ, पश्याम बने, जलधार बने, चपला बने, बने नभ कल्पन, शानिल - संचार बने, शीत बने ठिठुराते आये माघ मेघ साकार बने, नभ - गजन बन हृदम बापावे आये भय - आगार बने, इरा बारा म, तुम करणाकर मम जोवन याचार बने सून पधारे, यह छवि धारे, मुन दुनिया का प्यार बने । डिस्ट्रिक्ट शैल, सरला २३ जनवरी १९९३ हम विना