पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३८५

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सुनता हूँ कंपकंपी व्याप्त है इस जगती के कण कण मे,- जड़ मे, चेतन में, विकास के अणु-अणु के संघषण में, सुनता हूँ, कम्पन होता है अचल उपल के अन्तर में, धु-घुफ होती ही रहती है इस सूने-से अम्बर म, राजनि, दुरुह जनश्रुति है यह, इसमें मुझे प्रतीति नहीं, तुम तो दिखलाती हो कम्पन-हीन प्रीति को रौति नयो । कम्पन में कम्पन होता है-यह भी गुरुजन कहते हैं, सुनते है कि एक के लोचन देख अन्य के वहते है, पया प्रतिवाद भयकर मेरे लिए नियम सब हे जग के ? मेरे लिए विशूल हो गये पया सब फूल नियति मग के ? रग-रग रोम-रोम निशि-वासर नाम सुमरनी फेर रहे, देखो, कितमी आतुरता से वे सब तुमको टैर रहे। 7 ओ मृदुलै, क्या लिवू बताओ इस विलयाती पातो म? कैसे हिय निचोड रस हूँ मै इस पाती अकुलाती म खीच रहा हूँ टेढ़ी-मेढी रेखाएं फंपते विक्रम सम्नग-भाव चुआ है मेरे अक्षर-अकर से, मापा को दोनता, शब्द की दरिद्रता सल रही मुझे पत्र लेखनोत्सुनता को यह ज्याला फैसे, अहो, बुझे। यो लटकी हो तुम आशा यो फासो-सी जीवन मग मे' पड़ी तुम्हारी स्मृति को बेडी हिय-उत्कण्ठा के पग में, भोगे पप, सजनि, मेरे इरा कृष्ण कल्पना मधुकर थे, दिख रहे हैं घयल लवण-वण, लोल लोचनों में उसे, काँप रही है जीवन मग गे वृदा-तर यी साली डाली, मूग रहो पिता रमोली, सुप्त हो रही हरिपारी' हम विपाया जनमत 1