पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३८४

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कभी तुम्हारे नूपुर की ध्वनि खन-क्षन करती है मन में, कभी चूडिया अमात होती मधु-समोर के नि स्वन में, सलज तुम्हारी ईसी सलोनी मै निजन में सुनता हूँ, नौरव उपवन मे मुमक्यानो को नव कनियां सुनता हूँ। ललिते, तुम्ही बता दो क्या क्या लिवा छोटो पाती है? कुछ लिखता हूँ तो होती है धुक्-धुक मेरी छाती गे, इसे कहूँ सकोच ? भोरुता? या, लज्जा? इसको, बाले, क्यो पर जाते ह यो मेरे शब्दो पर राहसा ताले । सकोची है, निपट निरक्षर है यह मेरा प्यार, सखी, निरी अरास्तात, सध्द-हीन है उत्पण्ठित मनुहार सखी। प्रेम, प्यार, आक्षण, घपण बोलो किसको कहते हैं। झर झर करते लोचन सरने क्यो उमडे से वहते है? रहते है किस देश छबीले रोदन-गायन के स्वन " सिमिट छुपे किस मनूषा में मुझ अति निधन के थन ये, कोन देश की यह विदेशिनी प्रीति रीति मग मे छायो। जीवन सचालन को फैसी नमी-नयो विधियां लायो? सजनि, बता दो तनिक, पर्वपी क्यों होती दिन-रात यहाँ ? ययों होते इस बैरिन के ये पात, और प्रतिघात यहाँ ? इस रोमाचकारिणी ठगिनी का है नौरव मोड कहाँ ? तनिक बता दो वह थल, भावो को उमटी है भीड जहाँ, देखो तो यह कम्पन रह-रह स्मरण-फरण्डक खोल रहा, करता है उत्पात, देख लो, रोम रोग में डोल रहा हम पियपायोजनमक I ५७९