पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४१३

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भ्रमजाल जिस दिन उठती हुई जवानो आयो मेरे द्वार- बदल गया है उगी दियरा से जीयन गा व्यापार, टुपडे - टुप हुई गवला लोप लाज यो, देषि, हर दम यह चढ़ा रहता है एक अजीर गुमार । मन म रंग - विरगापन है, अधरो मे है प्यास, आपो में अधीर अन्येपण या भर रहा प्रयास, स्वास और निखासा में है चिन्तन का रण रंग हिय यी द्रुत गति मय धडकन मे भरी हुई है आश देवि, भुजाओ मे आलिंगन का भर रहा उटाह, रोम-रोम मे समा गयी है घुल मिलने की चाह, ठिन-छिन मे यह देह कण्टक्ति हो उठती है सूर, होता ही रहता है निशिदिन इस जीवन में दाह । इस मेरे मस्तिष्क देश में है असीम उन्माद, और एक अप्राप्त वस्तु का मन मे भरा विपाद, जीवन में शून्मता भरी है और तीन अनुराग, धरम करम की, पाप-पुण्य वी, भूल चुका हूँ यार । पथ के टेले - मेढे - पन की मुये न थी परवाह पर, न याद था मुहो कि यह तो गहरी भी है राह, कितना गहरा उतर गया हूं राहता मैं अनजान, नही पा सका हूं अब तक, सवि, मैं अपनी थाह् । हम विगायी जनम के