पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४१४

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इस गहरे मे घना अंधेग फेर रहा है प्राण, और तरल - भावना - वोचियों लहरा रही अजान, दूचा - देवा - सा लगता है मेरा सब ससार, धोया-बोया-मा लगता है यह जीवन मुनसान। पाप पुण्य के फलाफको को, देवि, न दो उपदेश, नय-अनयो के इस विमश का तुम न करो अब फ्लेश, तजति, कौन हलका है, मेरे इस चौवन का बोप, फिर रेसा यह पाप पुण्य का योझा और विशेष? यूँ भुज भर कर हिये लगाना है क्या कोई पाप या अघखुले दृगो का चुम्बन है यया पाप कलाप' कुन्तल से कोडा करना भी है क्या कोई दोप? देवि, बताभी तो इसमें है यहां पाप सन्ताप ? 7 मरमाते होकरके फिरना, रहना नित अलमस्त, निशि दिन अपनी वस्तु खोजना होकर सम्मय, व्यस्त, इसमे कहा पाप है प्रमदे ? कहाँ अनीति विकार ? यह तो है जोवन की महिमा, नित्य अचल, कूटस्थ ? नीति-अनीति-विचारी म है मन-मम्भ्रम गय भूल, जन को पाप पुण्य की बातें । है ये कल-जलूल, जीवन के जो प्रबल तकाजे, वे कहलाते पाप, क्या ही शोक रही है दुनिया यूँ आँसो में पल, ? यदि अस्तित्व पाप का है तो जग है पाप प्रसूत, तो फिर, कैसे हो सकता है यहाँ पुण्य उद्भूत धम पुण्य की शिथिल भावना है मावल्पित बात, देवि, मुझे तो नही हुआ है यहाँ पाप अनुभूत 1 हम निपपायी जनम ३८ ४९