पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४३१

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ऊंची ऊँची दीयागे वो मर ने सहसा पार गृह निशा मे छिटवाने पशि पिरण-सी दो-चार, आ पहुँचे बाग म स्मृति के संग मे लोचर आज- लिये सरलता को जोडा का मोहक साज- समाज । सहसा उगे नेश अम्बर में ये दो दो नक्षत्र, याँप रहा मेरा दिड्-मण्डल यत्र-तत्र - सवन आज धूगकर देख रहा हूँ मैं पीछे को और, जीवन की पगडण्डी टेदी, दिपेन ओरन छोर, का का नला? कहाँ आ पहुँना क्या जानें अनजान ? फ्यो चलता हूँ सह-निशि मैं इसरा मुझे न शान चरते - चलते नमन जाम है विजली की-सी रेख तभी दिखाई दे जाता है कुछ-कुछ एकाएक । हिम में गडी हुई आखो का है संभालना काम तइप जाय पर आह न निवले तभी बहादुर नाम खाण्ह - खण्ड आदा यदि होये तब भी क्या परवाह ? धुभा उठे, हो भस्म हृदय का नाहे सब उत्साह, जो होना हो, हो जाये पर, न हो रग मे भग सदा उमडती रहे हृदय की नवल अनय उमग । अनु विन्दु करते हैं मेरी स्मिति या नव अभिषेका, बनी तुम्हारी नितराई मम विरह-गान की टेक, सतत निराशा लिखती है इस जीवन का अनुलेख सजनि, विच सुवो है अभाग की उल्टी सीधी रेप, निरानन्द घडियो ने लूटा जीवन का आनन्द, चित्ता ही घेरे है जब से उठी उमग अमद ४०२ हम विषपामा जनम में