पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४५३

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एक सहसू यप को माला में हूँ उलटो फेर रहा, उन गत युग के गुम्फित मनको को फिर-फिर हैर रहा, घूम गया जो चक्र उसी की ओर देखता जाता हूँ, इधर-उबर मर और पराजय की ही मुद्रा पाता हूँ। आँखो का ज्यलत होवानल क्षीण दैन्य का नीर हुआ, आन सड्ग बी धार कुण्ठिता है साली तूणीर हुभा 2 विजय सूय ढल चुका अंधेरा आया है रखने को लाज, कही पराजित का गुख देख न ले यह विजयी कुटिल समाज, अचल, कहाँ फटा अचल यह ? माँ का प्यारा यस्त्र वहाँ अर्धनग्न, रम्गा, पपूत की माँ का लज्जा-अस्त्र कहा? वहा छिपाकै यह मुम्ब अगना ? खोकर विजय फकीरहुआ, आज खड्ग को धार बुण्ठिता हूँ पाली तूणीर हुमा f जहाँ विजय के पिपामात हो गये, जाख की ओट कई, जहा जूझकर मरे अनेको, जहा सा गये चोट कई, यही आज सन्ध्या को म बैठा हूँ अपनी निधि छोडे, कई शिगार, श्वान, गीदड ये रूपा रहे दौडे दौडे । विजित साक्ष के झुटपुटे रामय क्कदा रख गम्भीर हुआ, आज नड्ग की धार कुण्ठिता है खाली तूणीर हुमा रग-रग मे टण्ठा पानी है, अरे उष्णता चली गयी, नस नस में टीमें उठती हैं, विजय टूर तथा टो सही, यिजय नहीं, रण के प्रापण की घूल बटोरे लाया हूँ, हिय वे घायो मे वर्षों के चिपटी में ले आया हूँ। टूटे अस्त्र, धूल माथे पर, हा । केसा में योर हुआ आज यड्ग नी पार पुण्ठिना है खाली तूपोर हुआ 1 हम विषपायी जाम ५२४