पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४५२

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पराजय-गीत आज खड्ग की धार कुण्ठिना है साली तूणीर हुआ, विजय पताका झुकी हुई है, रक्ष्यभ्रष्ट यह तौर हुआ, बढती हुई कतार फौज की सहसा अस्त-व्यस्त हुई, मस्त हुई भावो की गरिमा महिमा सब स यस्त हुई, मुझे न छेडो इतिहास के पन्नो, मैं गसधीर हुआ, आज खङ्ग की धार कुण्ठिता है खाली तूणीर हुआ ! में हूँ विजित, जीत मा प्यासा विजित, भूल जाऊँ कैसे? वह संघपण वी घटिका है बसी हुई हिय मे ऐसे- जैसे मां की गोदी मे शिशु का दुलार बस जाता है। जैसे अगुलीय मे भरकत का नवनग करा जाता है, 'विजय-विजय' ग्टते रटते मेरा मनुश फल-कोर हुआ, फिर भी असि की धार कुण्ठिता है, खाली तूणीर हुआ 1 गगन भेद कर वरद करो ने विजय प्रसाद दिया था जो, जिसके बल पर किसी समय में मैंने विजय किया था जो, वह सब बाज दिमटिमाती स्मृति-दीपशिखा बन आया है, कालान्तर ने कृपा आवरण मे उसको लिपटाया है, गौरव गलित हुआ गुरुता का निष्प्रभ क्षीण शरीर हुमा, आज खल्म की धार कुण्ठिता है साली तूणीर हुशा 1 हम विपपायी जनमक १२३