पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४८८

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फिर कैसी यह अरुचि अधर में, ऐ 'नवीन' पीने वाले ? फेर रहे हो क्यो अपना मुख हलाहल के प्याले? थी गणेश कुटो, कानपुर ७ दिसम्बर १९३१ नरक-विधान उधर बिलबिलाते थे कोडे नानदान में किलबिल-किलबिल, इबर सडी, गन्दी, कच्ची-सो नाली का पानी था पकिल । उठते थे अबखरे भयकर सडन और बदबू के वा पर, और वही पर बने हुए थे मानव नामक कीडो के घर, क्या उन मलिन घरीदो को भी घर कह सकते हो तुम, यारो? घर रहने के पहले यदि तुम साहस कर के वहाँ पधारो- तो तुम देखोये कि माद-सी वग कोठरी है गोली-सी- जिसकी दीवारें दिसती है दरकी-सी, मैलो, सोलो - सी। हम दिएपायी जनमक