पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४९०

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यह कैसा विधान ? रे मानव, वह कैसी विडम्बना नय को? अरे पराजित, अब भी क्या है बहुत दूर वह घडी प्रलय की? थो गणेश पुटीर, कानपुर १४ सितम्बर १९३७, राति २ बजे एक वार तो देख एक बार तो देख, अरे जग मेरी डण्डा-बेटो, एक बार तो देख कट गयो है यह मेरी एडी, टेढ़ी मेढी यह मदमाती मेरी चाल निहार, झन-मन-दान-दान करता है हम मातो का ससार, गुर्राते झन्नाते फिरते है ये मेरे शेर जो जग, जरा देख तो है वो करो विफ्ट दिलेर । महाँ बेडियो की उठतो है स्वर अकार-हिलोर, बैरक और अडगडों में, चक्कर में, पारा ओर, अन शन-सग खन वी यह जीवन दशक माहक टेक- बार भार उठ-उठ आती है यो हो एकाएका, सुन ले, कान लगाकर सुन ले ओ जग इतको आज, बरे, देख तो इन यधुआ या फैला यहा म्बराज । हम विषपाया जनम क ४.१