पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५३१

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7 तोडकर उस शृखला को जो पड़ी थी मृदुल पग मे' रामहसिनि, उप चाली इतनी सुबह अजेय मग मे' हो गये सम्पूर्ण क्या तव काज सर इस अनित जग मे चिर महा अभिनिष्क्रमण का कौन-सा उल्लास था वह ' आरम - आहुति के ज्वलित ये खेल तुमने खूब खेले, हताशुचि आदश के हित कोन दुख तुमने न खेले ? लो, तुम्हारे स्वप्न द्रष्टा प्राण प्रिय अब हैं अकेले, सुमुखि, इतने ही दिनो का क्या तुम्हें अवकाश था यह देवि, क्या उस पार गंजी कान्ह को मुरली सलौनी ? या कि कोडोत्सुक्य मिस खेली अगत् से दृग मिचौनी' आज अनहोनी हुई ऐसी, कभी जो थी न होनी, और कुछ दिन तो रहोगी तुम, हमे विश्वास था यह । फौन थी तुम एक कोमल करपना सी, निठुर जग में? कौन थी तुम सुमन-पंखुरीको, विषम इस नियम मन में? फोन यी तुम भक्ति-भी, नित मेह के हिम चिर-पिलगम' कौन थी? किस देश की थी। तब विचित्र निवास था यह निराधा-सिकता-युपथ मे अश्म - रेखा सो मुअकिता- वापु सम्पन मे धवल-से हिम शिखर-सो तुम नसकित,- निपट अधिवारे गगन मे ज्योति-रेखा-सी अकम्पित - आज, प्राणायाम का क्या माखिरी नि श्वास था यह थी गणेश टौर, कानपुर १८माघ १९३६ ! १ इगविषयी जनम ११८