पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५४८

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क्या परवश, डग-मग पग मानव ? यह परवश, उग-मग-पग मानव, लादे चला जा रहा सिर पर, अपनी गत सस्मृतियो के शव, यह परक्य, डग-मग-पग मानव । स्मृतियो का यह बोझ अपरिमित, यह जजर तन, यह दुबल मन, उस पर, यह पय-चलन निरन्तर, फिर यह काल गणन-श्रम क्षण क्षण, मार्ग-चलन यह, काल कलन यह, ये चिर देश काल के बन्धन, ऐसे नियति-वृत्त मे विजदित, मन है भ्रमित, बचन है नीरव, है परवश, डगमग-पग मानव । कहाँ-कहाँ की सुध बुध आनर तन, मन, प्राण शिथिल कर जाती, तममय, विस्मत काल-कक्ष मै बह चुपके दीपक घर जाती, भर जानी है जीवन-घर मे आत्म समय मदिरा मदमाती, यो जोबन मै हो जाता है कम निरति वा पूण पराभव, यह परवश, उग-मग-पग मानव। ? मिला कर्म का बोझ मनुज को, फिर, स्मरणो का बीस मिला यह, दो-दा मार वहाँ तब ढोदे यह दुबल तन मानव अहरह स्मरण इधर, है उधर पार्म-ग्ण, दोनो नाज हुए है पुर्ष, अरो नियति, तू ने गानय के हिय म क्यो सुलगाया यह देव है परवश, डग-मग-पग माना। ? जो ग्रोवा, अग्रिम-दान हित, अग्रिम-अभिमुख थी वेचारी, यह मुड गयी आज पोटे को बावम, परवश-सी, हिय-हारी। हम विषपामा जनमक ५.५