पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५५६

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चिन्ता अपनी नीर परायो को सब चिन्ताओं का भार लिये, चला जा रहा है यह मानव मन में एक बुखार लिये, आज, तीसरे पहर, उठी है चौधे की अतुलित चिन्ता, आये है असफलित मनोरथ जीयन - भर की हार लिये। माया मिली न जन - वैभव को, मिले न राम लोक-सुख के, आ पहुँचा अपराल काल यह, फटे न दल बादल दुख के, अध्य दे रहा है अस्तगत रवि को यह मानव प्राणी, आज मुड़े है पश्चिम दिशि को दुग् इस प्राची-अभिमुख के । देख रहा है मानव अपना जीवन-क्रम नि सार निरा, देख रहा है वह अपना मन अन्वकार से घिरा घिरा, देख रहा है निज बों का, बह, मुरझाया - सा पौधा, अनुभव करता है वह, जैसे, उसका मग है गिरा गिरा। हुआ तीसरा पहर, और जब मन्ध्या भी आने को है, खेत और खलिहानो को यह उलो घूप जाने को है, कही घोसला नहीं बनाया, सोच रहा है यो पड़ी,- पच्छिम के सागर में सूरज जब कि डूब जाने का है। सास-बसेरा बहा करोगे ? पूछ रहा है यो सशय, नेशयाम कैरी काटोगे? पूछ रहा यो हिय का भय, दाने मी पथा आशा है? या पूला दूरदशिता ने, और, कहा पाओगे पानी बोला यो स्वभाग्य निदय । इन प्रश्नों को सुनकर, मानव एक निमिप को सिन्न हुआ, किन्तु दूसरे ही क्षण उसरा सब भय नशय छिन्न हुआ, हम विषपाय। जनमक