पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/५७१

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गतानुगति को, परिपाटो को भूट प्रथाएं घुसी घम-वेलि की पत्तो पत्ती बना कर आग, लपक कर इन्हें खीच ले तू अपनी गोदी म, रानो, आ, झकझोर मूटना को तू भग्माक्शेय, करयाणी, तू मत देख, बटकने दे री, इस हिय की घुकधुकी बिचारी। खूब धधक उठ, घा-धन कर तू महानाश को भट्टी प्यारी। जडता बनी धम का भूपण, शठता आचार्या बन बैठी, भूत दया का स्प धरे यह निपट पुसफता है ऐठी, सामाजिक जोपास्य - भावना बनी भाग्य का फेर निराला, निरुत्साह, दोवत्य, भोति का पड़ा हुआ है उर पर पाला कार दे नष्ट माज सदियो बा सचित यह गुभाव अविचारी। अरी, धरव उठ, पक-क कर तू महानाश वी भट्ठी प्यारो। १३४ हग विषपाया जनम क