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शतशत सुग्न की अभिलापाएँ छिन में धार-क्षार हो जायें, नहस हृदय की दुर्घलताएं एक निगिप भर में खो जायें, लधा-लक्ष लोचन मे चमके प्राणार्पण की निमम ज्वाला, बोटि-कोटि कण्टो से निकले सवनाश का घोप निराला, तू निसन झाटय झूम झकयोर भस्म कर चौ तुग बाटारी, अरी, बंधक उठ धक-धक बार तू, महानाश की भट्ठी प्यारी। तेरी इन आज सृष्टि राहार-भार यह तब हिय हार बना, मतवाली कराल दाडो मे मत्यु पेटती है विकराली, दहन-समम्या की रेखाएँ है तव भाल-देश पर अचिन्त रखताकाक्षा रो तेरी यह जिम्बा, कुछ लपको, कुछ शकित, मेरी हृदय शिला पर कर ले पैमी अपनी लपट कटारी, अरी पचय उठ, धक धक कर तू महानाश वी भट्ठी मारी। . हम विषपानी पनग 4