पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६००

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स्मरण विहगम मेरी स्मृति के यातायन की मूल-भरी, धूमिल दिहलो पर -- आकुल - से औचक बैठे है कई स्मरण के नग-गण आरि, विस्मति के किवाड-मम स्मृति के वातायन में लगे हुए है, की थी नन्द खिडकियों मैने गिज सार-विहगो से अकुलाकर ) किन्तु नोच खटपटा रहे हैं खिसको पर ये पछ। पाहुन, और, वार उठा है चौरे में यह मेरा मन मुन नुन गुन-गुन अब तो अवश मुल रही है मह स्मति की खिडकी पोरे-धोरे, और दिखाई दिया दूर पर विस्मृन नभ-मण्डल करुणारुण । स्थागत कर्स,बाहो, किन-किन का? इतने अतिथि स्मरण-द्विज आये आने कलन मे ना जाने कितना विगत याल भर लाये, है अटपटा मनुज जीवन, जो है नूतन भी, किन्तु पुरातन, लहर रहे है मेरे सम्मुख सभी सून उल-उलझाये । है अनुताप-वेदना मन में, निष्फलता की व्यथा भरी है, विगत फाल-नभ से अति को सुधि धीरे धीरे उतरी है, देख रहा है मैं खिड़की से निज जीवन की सूनी अटवी, जिसको पगडण्डो पर मेरी गत पग-रेखाएं उभरी है। समत कगठता का मग में अति अगाव यह खटक रहा है, सोये हुए अवसरो मे यह मन अय फिर भटक रहा है, हहर रहा है चहूँ दिशि सतत चिर अतृप्ति का गहर गहाणव, निवल प्रयत्न - तौर पर बैठा अपना मस्तक पटक रहा है 1 इस विपपामी गनम के