पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ज्वाल-पौन-हाहाकार मरुस्थल का कराल ज्वाल पौन-हाहाकार मैडराया करता है हिय के अम्बर से, प्राणों की पहेली कोरी बू, कहो, प्राणजन ज्वालाएं लगी हैं मेरे सारे तन-भर मे। लगता है मानो भस्मीभूत होगा मेग विश्व धधक-धककर एक क्षणभर में, परिवर्तित होगा क्या मेरा कल्पना का जग राख के बुझे से एक लघु कण-भर में? नैनो को उठा के मैने गगन विलोका और दृष्टि दोडा डाली मैने सर चराचर में, रुद्रताप का अमाप शाप मिला मुझे और, अग्नि तप्त धूलि मिली डगर इगर में, वीचि का विलास मंसा? कहाँ का तरग रात भरी है आकण्ठ आग मेरे मन-सर मे मेरी दसो अंगुलियाँ बनी है लुकाठो और, ज्वलित हुई है मरे दोनो दाम कर म केन्द्रीय 'कारागार, बरेली 2 ३ मई १९४४ ३म विषपामीरमक