पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६०३

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द्विधा लोप प्रकटी है शत शत आशाएं मेरे एक - एक स्पन्दन में, तडपी शत शत अभिलापाएँ हिय के एक एक कम्पन में, धूलि-धूसरित मुझे देखकर जग कहता है मुझे विरागी, कि तु अमित अनुराग भग है मेरे शोणित के कण-कण मे । वालो बब नीरसता जायी, मेरे रसमय अभिव्यजन म' अति विराग भी हुआ रसीला बँधकर मेरे रस बन्धन म ऊपर से गुसा-तूया हूँ, पर, अतर में है रस-धारा, नहीं हुआ प्राचीन अभी, हूँ नित्य नवीन रसिकः रजन मै । मुझयो लसकर निपट अवेला मत समझो मै हूँ एकात्री, मेरे खेि विराज रही है मेरे पीतम की छवि वाकी । तुम मत हठ ठानो, ओ जग जन, गग पिय के दशन करने वा वहता हूँ वोरा जाआगे जब निरखोगे उनकी शाकी। गैहूँ दो, पर, ऐसा दो हैं जो कि एक से भिन नहीं है, मेरे इस सिद्धान्त कथन में गणित शास्त्र या चिह्न नहीं है। एक-कवा योग गणित में हो जाता है दुविधा बाला, पर मेरे इग सरस योग में क्या दुविधा मा नाम यही है। व प्रौय मारागार, वरटा on६ १९४८ ५६५ हम निराशजनम