पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६१

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हे ज्योतिर्मय अपनी दीप्ति-किरण से कर दो जग-मग इस धरणी का आँगन हे ज्योतिभव,निज युति स्मिति से कर दो सम्मित जन-गण-आनन । यह वसुधा, यह धीर धरित्री, यह वराह-उद्धृता, नग धृता,-- अचला, विश्वम्भरा, रमा यह, अणव-वसनोमि-आवृता,- सुमन पर्ण-तृण-राजि-सयुता, रन-पण्डिता, यत्न हास्यता, आज ध्वस-सन्मुखी बन रही मानव की लिप्या के कारण, है ज्योतिर्मय, तव द्युति-वार से हो जन-मन-धन-व्वान्त-निवारण । ? निज विनाश रत, उद्धत, मतिहत, योगभ्रष्ट यह बामन मानव,- अहकार-मज्जित, निलज्जित, बना रहा है, निज को दानव, अहकार-कदम-निमग्न, मह नग्न बन रहा है अति दानव उन्नत बुद्धि अधौनत निष्ठा, तव, इसका हो भयो न पराभय तुम मगलमय इस जगती पर करो अवतरित नदन कानन, हे ज्योतिमय, निज आभा से चमका दो घरणी का आगन । भारत-भूमि तो सदा रही है प्यारी क्रीडा-स्थली तुम्हारी, सदा मेजते रहे यहा तुम अपने तेज अश-अवतारी, वर दो इस स्वाधीन देश में हम आयाल वृद्ध नर-नारी, तय विश्व भर रूप निहारें, वह नित्य उसका भाराथन, हे ज्योतिमय, विश्व-नाश का तिमिर हरो, चमके अमुधागन । ५, विरार प्लेस, नयी दिरी ८ अगस्त १९५५ हम पिपपायी जनमक