पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६७७

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अविरल चेतना को धार नित अजसा, सतत, अविरल चेतना की धार, कर रही मृण्मय अवनि पर अमिय की बौछार, अविरल चेतना को घार? निखिल रवि-मण्डल, समण्डल बन रहा बज धाम, और रज कणिया बनी है गोपिया अभिराम, रुचिर चेतन-तत्त्व आया बन सजल घनश्याम, काल, नत्तन - लाल देता है, समुद अविराम । कह रहा है यो निसिल ब्रह्माण्ड रास - बिहार अविरल चेतना की धार 1 काल - यमुना - तोर, चिर अश्वत्थ रुप कदम्ब,- धीर अव्यय - भाव से हिल-डुल रहा सालम्ब, श्रीर, मात्र - पश के, उस पर खिले अविलम्ब, श्याम धन का यह अनोखा सृजन विजय स्तम्भ । रज कणो मे हो रहा यह प्राण का राचार, अविरल चेतना की धार । याधिभौतिक रेणु - स्पो गोपियो के चोर, बधा पता व कब हरे घनश्याग ने बे-पौर। और फिर अवलोक उनको भग्न, नग्न शरीर, क्या पता अब दिये तन-पट और प्राण-समीर ? यह हरण औ' दान लीला है अनन्त अपार अविरल चेतना को धार। हम दिपायी जदमक