पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/६८

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भौस मांगता हूँ, याचक हूँ, बल दो, हे, वल दो, है बल दो, मन्थन थम जाये, सेन्द्रियता विजिता हो, यह पर अविकल दो, लीला की प्रियता को भी तो मर्यादा है, कुछ मोमर है, फिर भी मुझे नचाने का यह तव उत्साह न क्यो धीमा है ? हिंग में पण्ड विराग भरा है, है अनुताप, किन्तु है निष्क्रिय, अब तो समय आ गया है तुम कर दो इसको सनिय, हे प्रिय ! श्री गणेप पुटीर, पानपुर जुलाई १९२६ उड चला उड चला इस सान्ध्य नभ मे, मन विहग तण निज बरोरा, यो चला क्सि दिशि चला? किसने उसे यो आज देश? पयो हुए सहसा स्फुरित, अति, शिथिल, सलथ गख उसके । क्मा हुए है उदित नन में, चन्द्रमा अक्लक विकल आतुर-सा उड़ा है मन-विह्मम आज मेरा? हम विषपाया जनम के उसके १५