पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गयो देता है दाह अन्य को यह नर स्वर काट मे पट कर श्या मिल जाता है इसे, सो, अपने ही प्रियगन से लड़ कर? वडा उद्देश्य सामने वथा है लक्ष्य दृगो में इनफै? बरे, यही न कि मार-काटे निज स्वजगा को हो गिन गिन के? इतना घृणित ध्येय । पर उसके प्राप्ति-अर्थ यह कठिन तपस्या? यह कैसे हो सका सुसम्भव बछी विकट है यही समस्या। यह अज्ञान भयकर नर का, ये निम्नगा वृत्तिया उसकी, यही वजह है कि जो जल रही जगतो जैसे ढेरी भुस की। ? हाय चना जंग हिंसा पूजक, मजा आ गया है कुछ ऐसा- सोच नहीं पाता है किचित् कि परिणाम निकलेगा फैमा? शोणित तर्पण मे ही उसको, ऐसा कुछ आह्लाद मिल रहा:- कि वह रक्त की पाराओ मे उतराता-डूबत्ता वह हम विषपाथी जनम के ५५