पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/७७

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नैतिकता के सोपानों से खटखट झटपट उतरा है नर, और लात से ठेल गिरा दी उसने स्वर्ग-निसैनी सत्वर, बैठ वायुयानो पर अपने वह दरसाता है ऐसे बम कि झट ग्राम-नगरो गे भीपण दावानल जल उठता इक दम, मन्दिर, गसजिद, मठ,गिरिजाघर रचिर सदन जल उठने धू-धू, लपटें आरामान को उठ-उठ कर उठती है हा-हा-हू-हू । सदियो की सचित संस्कृतिमा भस्म रूप हो जाती क्षण मे, निदय मानव हो मानव को मिला रहा है रज के कण में । भयकर यह योसी विक्षिप्तता अरे? यह पैसा उमाद जला रहे हम अपना हो घर? काट रहे है अपना ही सर । कौन छिन्नमस्ता-प्रवृत्ति यह जाग उठी मानव हिय-भीतर? कि जो आत्महत्या वा भीषण पाग ले रहे हम अपने सर, इम विषपामी बनमक ५७