से भी बीस जूते आगे थी, बर्तन साफ करते समय हमेशा धीमे स्वर मे गुनगुनाया करती थी—
"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"
इस कविता की पंक्ति ने उसे दीवाना बना दिया था। जिधर जाओ, उधर से यही सुनाई देता? "दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" आखिर यह क्या बला है? ऊपर कोठे पर चढ़ो, तो काना इस्मायल अपनी एक आँख से कबूतरों को देखकर ऊँचे स्वर से गा रहा है। "दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे," दरियों की दुकान पर बैठो, तो बगल की दुकान में ला° किशोरी मल बजाज अपने मोटे-मोटे चूतडों की गद्दियों पर आराम से बैठकर बड़े भद्दे ढंग से "तानसेन्" की तरह गाना शुरू कर देता—"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" दरियों की दुकान से उठो और बैठक में जाकर रेडियो लगाओ तो अखतरी बाई फैजाबादी गा रही है—
"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"
क्या बेहूदगी है? वह यही सोचता रहता परन्तु; एक दिन, जब वह खाली दिमाग़ था और पान बनाने के लिये छालियाँ काट रहा था तो उसने स्वयं बिना विचार के गाना शुरू कर दिया—
"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"
वह स्वयं ही लज्जित हो उठा और अपने पर उसे बहुत गुस्सा आया; किन्तु एक-दम खिलखिला कर हँसने के बाद उसने जान बूझ कर ऊँचे स्वर में गाना शुरू कर दिया। "दीवाना बनाना...।" इस प्रकार गाते हुए "बदजाद" की सारी कविता उसने एक हँसी के नीचे दबा दी और मन ही मन में खुश हुआ।
कई बार उसके मन में आया कि वह भी एम° असलम की