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हैं--केवल भावनाओं के अधीन हो कर, वह भी झूठी भावनाओं के!

जब सैय्यद अपने मोहल्ले की लड़कियों का विश्लेषण करता है, लो उसे स्पष्ट दीख पड़ता है, कि उसने इस समाज की बुराइयों को उभारकर सामने रखा है। सग़रा और नग़मा प्रतिनिधि उन लड़कियों के जिनके माता-पिता, धर्म के ठेकेदार उन्हें इंसान से प्यार करना नहीं सिखाते। पुष्पा से वह प्यार इसलिए नहीं कर सकता, कि उसके दो अपराध हो जायेंगे। पहला प्यार और वह भी एक मुसलमान का हिन्दू लड़की से। भले ही लड़कियों को ऐसे पुरुषों को सोंपनी पड़े, जहाँ उनका जीवन नरक हो; परन्तु जाति बन्धन अटूट ही रहेगा। जब तक यह जाति और धर्म के बन्धन हमारे समाज में रहेंगे, यह पवित्रता के प्रशंसक समाज में होने वाले कुकर्मो को रोक नहीं सकते और न ही सैय्यद फत्तो के प्यार जैसे उलझाव में फँसना चाहता है, प्यार के वह इस विभुज का एक शीर्प नहीं बनना चाहता, जो आज हरेक कहानी, फिल्म द्वारा प्रेरित सड़कों और मकानों में मिलता है।

न ही सैय्यद प्यार में असफल होकर अपने जनाजे को निकालना चाहता है। वह इस तेज़ रंग वाली तस्वीर को पसंद नहीं करता; जिनके रंग तो भड़कीले हैं; किन्तु हैं शीघ्र ही हल्के पड़ने वाले। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है, या तो उसका दिमाग खराब है या वह नजाम ही खराब है, जिसमें वह सांस ले रहा है। नित्य प्रति होने वाले व्यभिचारों को यदि रोकना है, तो समाज को बदलना होगा यदि आप चाहते है, कि चार सौदागर भाइयों की बारी-बारी से सेवा करने वाली अपनी जरूरत से मजबूर राजो इस समाज में न हो, तो इस समाज के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा। आज का समाज ऐसी औरतों को अपनाने और प्यार करने की आज्ञा कैसे दे सकता है, इस समाज में तो उनके प्रति हमदर्दी का तात्पर्य कुछ ओर ही निकालते है।

हवा के घोड़े
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