किया यह सव पर विदिशमी उदय में मन् १८५ उन्होंने प्राय:ममाज की नीय डाली ग्रोर उममें मारत कितना उपकार प्रा यह किमी छिग नहीं है। परन्तु भ्य। जो मे मागमा हिंदी का कितना उपकार हुमा यह बहुत लोग जानतं प्रथया विचार करने होंगे यपि स्वामी जी समय तक के रच हुए भाग-धों को कपोलकल्पित कह कर डा श्रद्धा नहीं करने थे तथापि उन्होंने जो कुछ लिया सब हिंदी लिया पार पसी सरल हिंदी में कि जिम सम लोग सहज समझ सकते हैं । इन्होंने हिंदी में वेदों की टीका की, उपनिष पर टिणण लिम्री, और अपने सिद्धानों का संग्रहसब "सत्यार्थप्रकाश' भी इसी माषा में प्रकाशित किया । आर्य समा के उपनियमों में हिंदो-भाषा का पढ़ना सब आर्य समाजियों लिये आवश्यक किया। स्वामी जी के बनाए ग्रंथों में अत्यन्त प्रस रखने वाले, और हिंदी भाषा को न जानने वाले दूसरी भागमा विद्वानों ने स्वामी जी से कई बार प्रार्थना की कि सत्यार्थप्रकाः आदि प्रथों का उर्दू और अंगरेज़ी आदि भाषाओं में अनुवाद । जावे तो संसार का बड़ा उपकार हो। स्वामी जी ने उन लोगों के सदा यही उत्तर दिया कि मैं अपने सामने अन्य भाषा में अपने ग्रंथ का अनुवाद न होने दूंगा । संसार का इससे बड़ा उपकार होग कि सब हिंदी जानने वाले वन जायें। जो लोग मेरी पुस्तकों थद्धा करेंगे वे अवश्य हिंदी पढ़ना सोखेंगे। आज कल इनके सत्यार प्रकाश और आर्य-समाज के प्रभाव से पंजाब में हिंदी का यह प्रभाव है कि जिसको कदापि आशा न थी। इसमें संदेह नहं कि अब भी पंजाब में उर्दू लिखने पढ़ने वालों की संख्या अधिक होगी परंतु अक्षर केवल उर्दू होते हैं भाषा में हिंदी संस्कृत के शब्द भरे रहते हैं । उर्दू के मुसल्मान विद्वान् कहते हैं कि आर्य समा.
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