1 (४५) ' विक प्रेम था । आप जहां कहीं बाहर जाते और वहां कोई हिंदी का , लेखक या रसिक होता तो उससे अवश्य हो मिलते। यदि इनके यहां कोई हिंदी का गुणग्राही जाता तो सव काम छोड़ कर उससे बड़े प्रेम से मिलते और उसका अच्छा सत्कार करते थे। एक बार आप पंडित प्रतापनारायण मिश्र के यहां मिलने गए पौर घड़ी नम्रतापूर्वक इन्होंने उन्हें एक मोहर नज़र करनी चाही। इस पर पंडित प्रतापनारायण येतरह बिगड़े और बोले आप हमारे पास अपनी धन की ग़रूरी बतलाने आप हो। इसके उत्तर में इन्होंने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ कर उत्तर दिया कि नहीं महाराज मैं तो मातृभाषा के मंदिर पर अक्षत चढ़ाता हूं। लाला श्रीनिवासदास को हिंदी से बड़ाम था पर इसकी सेवा करने का बड़ा उत्साह था परंतु काम काज को झंझट के कारण इन्हें अवकाश बहुत कम मिलता था । इसलिये इनके लिखे हुए तप्तासंवरण, संयोगितास्वयंवर, रणधीरप्रेममोहिनी, पौर परीक्षागुरु ये हो चार ग्रंश हैं, पर फिर भी ये चारों ग्रंथ एक से एक बढ़ कर हैं । परोक्षागुरु में इन्होंने जो एक साहूकार के पुत्र के जीवन का दृश्य खाँचा है उसे देख कर स्पष्ट प्रगट होता है कि इन्हें सांसारिक व्यवहारी का कैसा मच्च अनुभव था। खेद के साथ कहना पड़ता है कि लाला थोनियासदास केवल ३६ वर्ष की अवस्था में संवत् १९४४ (सन्१८८७ ई०) में कालकलित हुए । यदि ये कुछ दिन पार रहते तो हिंदी भाषा की बहुत कुछ सेवा करते। इनका चरित्र और स्वभाव पादर्श मानने योग्य है।
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