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पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/९१

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(४७) परंतु अपनी मातृभाषा हिंदो से इन्हें स्वाभाविक अनुराग 1 या। सारसुधानिधि के संपादक पंडित सदानंद जो से हेल मेल + होने के कारण इनका इस ओर और भी उत्साह बढ़ा और उन्हों 1 की सहायता से इन्होंने १४ वर्ष की अवस्था में "जन्मभूमि मौर । अत्र से मनुष्य की उत्पत्ति" विषय पर एक निबंध हिंदी में लिख } कर सर्वसाधारस्य के सम्मुख पढ़ा। सन् १८७१ ई० में इन्होंने प्रेम

विलासिनी मासिकपत्रिका और "हिंदी-प्रकाश" साप्ताहिक पत्र
प्रकाशित करना प्रारंभ किया। कलकत्ते में हिंदी के ये पहिले

। समाचार पत्र थे। इन्होने हिंदी के "नंदकोप" नामक पध कोप 1 को अकारादि क्रम से लिख कर सम्मादित किया और सारस्वत 1 के पूर्वार्द्ध का भापानुवाद करके उसका सारस्वतदीपिका नाम रखा। पिता का देहांत होने के पश्चात् इन्होंने कई एक व्यापार उठाए परन्तु सब में घाटा हुआ। अंत में इन्होंने एक बिसातखाने की दूकान खोली सो उसे एक कृतघ्न मित्र ने बिल्कुल अपना लिया। इन्हीं सब कारणों से उचाट चित्त होकर इन्होंने कलकत्ता छोड़ कर काशी का रहना पसंद किया। कलकत्ते से आकर इन्होंने कुछ दिन लखनऊ के डाकविभाग में काम किया और कुछ दिन अपने मामा वकील छन्नलाल जी को जमादारी का भी प्रबंध किया परंतु कुछ काल पश्चात् यह सब छोड़ कर इन्होंने रोवों की यात्रा की। रोयांधिपति महागज रघुराजसिंह जो इनसे मिल कर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्हें कृपापूर्वक अपना मुसाहिब बना कर अपने पास रक्खा। ११ पर्प रीयों में रह कर पाप पुनः काशी को चले पाए । सन् १८८४० में बलिया जिले के बंदोबस्त के मुहकमे में हिंदी जारी होने का प्रयत्न हो रहा था। अस्तु, यहाँ से याव हरिश्चंद्र