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जी ने आपको प्रतिनिधि बना कर हिंदी का पक्ष समर्थन करने को भेजा। वहाँ से लौटते समय आप काशी न आकर सीधे आसाम को चले गए और विसड़गढ़, कामरूप, सिलहट, कछार, मनीपूर आदि स्थानों में होते हुए शिलाँग में आए। यहाँ इन्होंने पंजाबी शाल वगैरह की दूकान खोली, चंदा करके जगन्नाथ का मंदिर बनवाया और रथयात्रा का मेला स्थापित किया, और 'मित्र समाज' नामक एक सभा स्थापित की। बंबई में जब गोरक्षा मिमोरियल की बात चली थी तो आपने आसाम से दस हज़ार व्यक्तियों के हस्ताक्षर करवाए थे।
आसाम से लौट कर जब से आप काशी जी में आए तब से फिर कहीं नहीं गए। केवल एक बार काश्मीर की यात्रा की थी। काशी में रहकर भारतजीवन का सम्पादन और उत्तमोत्तम पुस्तकें लिख कर हिंदी-साहित्य की सेवा करते रहे। आपने कोई २० पुस्तकें लिखीं जिनमें से कुछ तो बँगला के अनुवाद हैं। आप कुछ दिन तक काशी नागरीप्रचारिणी सभा के उपसभापति भी रहे थे और उसकी उन्नति में सदा दत्तचित्त रहते थे। आपका देहांत तारीख़ ९ जूलाई सन् १९०४ को काशी में हुआ।