पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/११०

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है और बतलाता है कि कैसे संसार की सब बातों की सूक्ष्माति- सूक्ष्म रूप से अभिव्यक्ति हुई, कैसे क्रम क्रम से उनकी उन्नति हुई और किस प्रकार उनकी संकुलता बढ़ती गई। जैसे संसार की भूतात्मक अथवा जीवात्मक उत्पत्ति के संबंध में विकासवाद के निश्चित नियम पूर्ण रूप से घटते हैं वैसे ही वे मनुष्य के सामाजिक जीवन के उन्नति-क्रम आदि को भी अपने अधीन रखते हैं। यदि हम सामाजिक जीवन के इतिहास पर ध्यान देते हैं तो हमें विदित होता है कि पहले मनुष्य असभ्य व जंगली अवस्था में थे। सृष्टि के आदि में सब प्रारंभिक जीव समान ही थे, पर सबने एकसी उन्नति न की । प्राकृतिक स्थिति के अनुकूल जिसकी जिस विषय की ओर विशंप प्रवृत्ति रही उस पर उसी की उत्तेजना का अधिक प्रभाव पड़ा । अंत में प्रकृति- देवी ने जैसा कार्य देखा वैसा ही फल भी दिया। जिसने जिस अवयव से कार्य लिया उसके उसी अवयव की पुष्टि और वृद्धि हुई। सारांश यह है कि आवश्यकतानुसार उनके रहन- सहन, भाव-विचार सबमें परिवर्तन हो चला। जो सामा- जिक जीवन पहले था वह अब न रहा । अब उसका रूप ही बदल गया। अब नए विधान आ उपस्थित हुए। नई आवश्यकताओं ने नई चीजों के बनाने के उपाय निकाले । जब किसी चीज की आवश्यकता पा उपस्थित होती है तब मस्तिष्क को उस कठिनता को हल करने के लिए कष्ट देना पड़ता है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में परिवर्तन के साथ ही साथ