मस्तिष्क-शक्ति का विकास होने लगा। सामाजिक जीवन के
परिवर्तन का दूसरा नाम असभ्यावस्था से सभ्यावस्था को प्राप्त
होना है। अर्थात् ज्यों ज्यों सामाजिक जीवन का विकास,
विस्तार और उसकी संकुलता होती गई त्यों त्यों सभ्यता देवी का
साम्राज्य स्थापित होता गया। सभ्यावस्था सामाजिक जीवन
में उस स्थिति का नाम है जब मनुष्य को अपने सुख और चैन
के साथ साथ दूसरे के स्वत्वों और अधिकारों का भी ज्ञान हो
जाता है। यह भाव जिस जाति में जितना ही अधिक पाया
जाता है उतना ही अधिक वह जाति सभ्य समझी जाती है
इस अवस्था की प्राप्ति बिना मस्तिष्क के विकास के नहीं हो
सकती, अथवा यह कहना चाहिए कि सभ्यता की उन्नति साथ
ही साथ होती है। एक दूसरे का अन्योन्याश्रय-संबंध है।
एक का दूसरे के बिना आगे बढ़ जाना या पीछे पड़ जाना
असंभव है। मस्तिष्क के विकास से साहित्य का स्थान
बड़े महत्त्व का है।
जैसे भौतिक शरीर की स्थिति और उन्नति बाह्य पंचभूतों के कार्यरूप प्रकाश, वायु, जलादि की उपयुक्तता पर निर्भर है, वैसे ही समाज के मस्तिष्क का बनना बिगड़ना साहित्य की अनुकूलता पर अवलंबित है, अर्थात् मस्तिष्क के विकास और वृद्धि का मुख्य साधन साहित्य है।
सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिये जो भाव-
सामग्री निकालकर समाज को सौंपता है उसके संचित भांडार