बन को निकरि गए दोउ भाई।
सावन गरजे, भादौ बरसै, पवन चलै पुरवाई।
कौन बिरिछ तर भीजत ह्वै हैं, राम लखन दोउ भाई ।
प्रेमी को यह विश्वास कभी नहीं होता कि उसके प्रिय के सुख का ध्यान जितना वह रखता है उतना संसार में और भी कोई रख सकता है। श्रीकृष्ण गोकुल से मथुरा चले गए जहाँ सब प्रकार का सुख-वैभव था पर यशोदा इसी सोच में मरती रही कि-
प्रात समय उठि माखन रोटी को बिन मांगे है ?
को मेरे बालक कुवर कान्ह को छिन छिन आगो लैहै ?
और उद्धव से कहती है-
सँदेसा देवकी से कहियो।
हैं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।।
तेल औ तातो जल देखत ही भजि जाते।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती क्रम क्रम करिके न्हाते ।।
तुम तो टेव जानतिहि हैहै। तऊ मोहिं कहि प्रावै
प्रात उठत मेरे लाल लईतहि माखन रोटी भावै ॥
अब यह सूर मोहि निसि बासर बड़ा रहत जिय सोच ।
अब मेरे अलकल.ते लालन हैहैं करत सँकोच ॥
वियोग की दशा में गहरे प्रेमियों को प्रिय के सुख का अनिश्चय ही नहीं कभी कभी घोर अनिष्ट की आशंका तक होती है जैसे एक पति-वियोगिनी स्त्री संदेह करती है-