पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२४ )

नदी किनारे धुआँ उठत है, मैं जानूँ कछु होय ।

जिसके कारण मैं जली, वही न जलता होय ॥

प्रिय के वियोग-जनित दुःख में जो करुणा का अंश होता है उसे तो मैंने दिखलाया किंतु ऐसे दुःख का प्रधान अंग आत्मपक्ष- संबंधी एक और ही प्रकार का दुःख होता है जिसे शोक कहते हैं । जिस व्यक्ति से किसी को घनिष्ठता और प्रीति होती है वह उसके जीवन के बहुत से व्यापारों तथा मनोवृत्तियों का आधार होता है। उसके जीवन का बहुत सा अंश उसी के संबंध द्वारा व्यक्त होता है। मनुष्य अपने लिये संसार श्राप बनाता है। संसार तो कहने सुनने के लिये है, वास्तव में किसी मनुष्य का संसार तो वे ही लोग हैं जिनसे उसका संसर्ग वा व्यवहार है। अतः ऐसे लोगों में से किसी का दूर होना उसके लिये उसके संसार के एक अंश का उठ जाना वा जीवन के एक अंग का निकल जाना है। किसी प्रिय वा सुहृद् के चिरवियोग वा मृत्यु के शोक के साथ करुणा वा दया का भाव मिलकर चित्त को बहुत व्याकुल करता है। किसी के मरने पर उसके प्राणी उसके साथ किए हुए अन्याय वा कुव्यवहार, तथा उसकी इच्छा-पूर्ति के संबंध में अपनी त्रुटियों को स्मरणकर और यह सोचकर कि उसकी आत्मा को संतुष्ट करने की संभावना सब दिन के लिये जाती रही, बहुत अधीर और विकल होते हैं ।

सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिये करुषा का प्रसार आवश्यक है। समाज-शास्त्र के पश्चिमी ग्रंथकारकहा