पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/४४

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आगे क्षमा कीजिए ।पर यह बतलाइए कि आपने यहाँ आकर मेरे शर्बत में क्यों जहर घोला और पकी पकाई खीर में साँप का विष उगला और मेरे आनंद को इस मंदिर में आकर नाश में मिलाया जिसे मैंने सर्वशक्तिमान भगवान् के अर्पण किया है ? चाहे जैसा यह बुरा और अशुद्ध क्यों न हो पर मैंने तो उसी के निमित्त बनाया है। सत्य ने कहा "ठीक, पर यह तो बतला कि भगवान इस मंदिर में बैठा है ? यदि तूने भगवान् को इस मंदिर में बिठाया होता तो फिर वह अशुद्ध क्यों रहता ? जरा आँख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे तू जन्म भर पूजता रहा है।"

राजा ने जो आँख उठाई तो क्या देखता है कि वहाँ उस बड़ी ऊँची बेदी पर उसी की मूति पत्थर की गढ़ी हुई रखो है और अभिमान की पगड़ो बाँधे हुए है। सत्य ने कहा कि "मूर्ख तूने जो काम किए केवल अपनी प्रतिष्ठा के लिये । इसी प्रतिष्ठा के प्राप्त होने की तेरी भावना रही है और इसी प्रतिष्ठा के लिये तूने अपनी आप पूजा की । रे मूर्ख, सकल जगत्स्वामी घट घट अंतर्यामी क्या ऐसे मनरूपी मंदिरों में भी अपना सिंहासन 'बिछने देता है, जो अभिमान और प्रतिष्ठाप्राप्ति की इच्छा इत्यादि से भरा है ? यह तो उसकी बिजली पड़ने के योग्य है।" सत्य का इतना कहना था कि सारी पृथिवी एकबारगी काँप उठी, मानों उसी दम टुकड़ा टुकड़ा हुआ चाहती थी, अाकाश में ऐसा शब्द हुआ कि जैसे प्रलयकाल का मेघ