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पहला भाग
(१) आपत्तियों का पर्वत
एक स्वप्न
जगत्प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी महात्मा सौक्रेटीज का मत था कि यदि संसार के मनुष्य मात्र की आपत्तियाँ एक ठौर एकत्र की जायँ और फिर सबको बराबर बराबर हिस्सा बाँट दिया जाय तो इस प्रबंध से भी उन मनुष्यों को संतोष नहीं हो सकता जो पहले अपने को अत्यंत अभागा वा विपद्ग्रस्त समझते थे, क्योंकि वे शीघ्र ही यह विचारने लगेंगे कि मेरी पूर्व दशा ही अच्छी थी। इसका कारण यह है कि जो दशा अच्छी वा बुरी विधना की ओर से हमें मिली है वह या तो (१) हमारी सहन-शक्ति के योग्य होती है, या (२) उसमें रहने से हम उसके सहन करने में अभ्यस्त हो जाते हैं, और इस कारण दोनों अवस्थाओं में से कोई भी हमें नहीं खलती। महाकवि होरेस भी इस विषय में सौक्रेटीज से सहमत थे। इन्होंने यहाँ