तक लिखा है कि जिन कठिनाइयों वा यातनाओं में हम पिसते रहते हैं वे उन आपत्तियों की अपेक्षा बहुत ही न्यून हैं जो हमको अपनी दशा दूसरे से परिवर्तन करने में मिल सकती हैं।
मैं अपनी आरामकुरसी पर बैठा उक्त दो कथनों पर विचार कर रहा था और अपनी मानसिक तरंगों में निमग्न था, कि मुझे कहों झपकी सी आ गई और मैं तुरंत खर्राटे लेने लग गया। सोया सोया देखता क्या हूँ कि मैं एक रमणीक मैदान में जा पहुँचा हूँ जिसके चारों ओर ऊँचे ऊँचे पर्वत श्रेणीबद्धक्षखड़े हैं। इन पर्वतों ने हरी वनस्पतियों से अपने प्रत्येक अंग को ऐसा ढक रखा है कि क्या मजाल जो कहीं भी खुला दिखाई दे जाय। इनके ढाल पर छोटे छोटे वृक्षों के बीच में कहीं कहीं कोई बड़ा वृक्ष देखने में बहुत भला लगता था। यद्यपि प्रकृति रूपी माली ने इस मैदान में एक भी बड़ा वृक्ष रहने नहीं दिया है, पर मैदान की हरी हरी घास वायु के हिलोरों में लहलहाती हुई कैसी प्यारी लग रही है! मैं इन्हों मानसिक भावों की तरंगों में अपने आपको भूल प्रकृति की
अनुपम शोभा देख रहा था कि सहसा मुझे कुछ शब्द सुनाई
पड़े। ध्यान देकर सुनने से जान पड़ा कि जैसे कहीं ढिंढोरा
पिटता हो। पास के एक मनुष्य से पूछने पर मालूम हुआ कि
भगवान् चतुरानन ने आज्ञा दी है कि मनुष्य मात्र आकर
अपनी अपनी आपत्तियाँ इस स्थान में फेंक जाय। इस कार्य के
लिये यह मैदान नियत किया गया है। यह सुन मैं भी एक