औदार्य, निश्छलता और शौर्य इन्हीं के भाग्य में आ पड़ा था।
अकबर के प्राचरणों से इन्हें स्वाभाविक घृणा थी। स्त्रियों
का बाजार लगवाकर वहाँ से महिलागणों को भटकवाकर
उनका धर्म-नाश करने और व्यर्थ राजपूत राजाओं को अपनी
बेटियाँ यवनों के घर ब्याहन के लिये सताने आदि की उसकी
कार्रवाइयाँ सुन सुन इनकी क्रोधाग्नि भड़क उठा करती थी।
ये ऐसा अवसर ढूँढ़ा ही करते थे कि अकबर किसी प्रकार
इनसे रण रोपे और यह अपने हाथ से उसका दर्प दमन करें।
होते होते ऐसा अवसर आ ही पड़ा। युवराज सलीम और
उसके पिता अकबर में परस्पर वैमनस्य रहा करता था, क्योंकि
अकबर तो अपने मंत्रियों के पैरों चलता था, विशेषतः अबुल
फज्ल के। अबुल फज्ल यह चाहा करता था कि अकबर के
पश्चात् किसी ऐसे को बादशाह बनावे जो उसके हाथ की
कठपुतली हो। सलीम अपने पैरों चलनेहारा था, इसी कारण
वह अबुल फज्ल को खटकता था। अबुल फज्ल फूट डालकर
अकबर को सलीम से लड़ाता रहता था। सलीम अपना
पक्ष पिता की दृष्टि में निर्बल पाकर किसी बड़े तथा बलवान
का आश्रय ढूँढ़ने लगा। अंत में उसकी दृष्टि में वीर महाराज
वीरसिंहदेव ही "निरबल को बल राम" दिखाई पड़े। सलोम
आकर महाराज का पाहुना हुआ और उसने अपना सब
वृत्तांत कहा। महाराज ने उसे सहायता देने का संकल्प
किया और जब गोलकुंडे से अबुल फज्ल लौटकर आगरे आ
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