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पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/८५

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अपनी पत्नी द्वारा विष दिलवाया; इस जघन्य कार्य पर राज-

वश से सब संबंधी और सजातीय रुष्ट हो गए। इन्हीं वीरों पर राज के महत्त्व-मंदिर की नीव थी, वह उनकी उदासीनता से ऐसी पोली पड़ी कि राज्य धसकने लगा। संबंधी इधर उधर तितर बितर हो, अपने छोटे छोटे राज्य अलग बना बैठे, जिनमें से बहुत से अब तक बुंदेलखंड के अंतर्गत वर्तमान हैं। आड़छा धीरे धीरे उजड़ने लगा, फिर कोई विशेष ख्याति के कार्य ऐसे नहीं हुए जिनसे इतिहास के पत्र सुभूषित होते । पर ओड़छा राज्य बना रहा। ओड़छे के राजमंदिर में दीपक जलते रहे। थोड़े दिनों में राजधानी ओड़छे से उठाकर टीकमगढ़ में कर दी गई। ओड़छे के राजमंदिरों में ताले पड़ गए। जहाँ रात- दिन राजकर्मचारियों, राजकुमारों, सैनिकों, सेवकों और दास- दासियों के कोलाहल से "निज पराय कछु सुनिय न काना" का वाक्य सत्य होता था वहाँ अब चतुर्दिक निःस्तब्धता ही नि:स्तब्धता भीषण रूप में छाई है। धन्य है, कालदेव ! तुम्हारे विचित्र कौतुक हैं! शिवधनुष टालने का साहस तो भग- वान रामचंद्रजी ने कर लिया था, परंतु तुम्हारे चक्र को थामने की सामर्थ्य त्रैलोक्य में किसी को नहीं है। राजसभा टीकम- गढ़ में हो जाने से ओड़छा अब नितांत छविहीन हो गया है।

-कृष्णबलदेव वर्मा
 

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