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पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/८४

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फिर चरितार्थ हुआ। जिस वीरकेशरी ने अकबर ऐसे प्रबल सम्राट का दर्प दमन किया था, उसके ही निर्बल पुत्र शाहजहाँ बादशाह के अधोन हो दिल्ली के दरबारे-आम के खंभों से टिककर विनीत भाव से खड़े रहने लगे। केशवदास, विक्रम- सिंह, अर्जुनसिंहादि अमात्यों के ठौर प्रतीतराय सदृश अमात्यों की प्रतीति होने लगी। विहारीलाल के समान कवि "जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीति बहार । अब अल रही गुलाब की अपत कटीली डार' यह कह ओड़छा छोड़ने लगे। पाठक महाशयो ! विहारीलालजी के 'अपत कटीली डार" वाक्य से ही समझ लीजिए कि इतने ही स्वल्प काल में, अर्थात् पिता से पुत्र तक राज्य आने में, क्या अंतर पड़ गया। कवि अपने पिता केशवदासजी के समय के ओड़छे की उपमा गुलाब के लहलहे पुष्पमंडित प्रासाद से और अपने समय के ओड़छे की 'अपत कटीली डार' से देते हैं। एक और दोहे में वे स्वयं कह चुके हैं “यहि आशा अटक्यो रह्यो अलि गुलाब के मूल । हहैं बहुरि वसंत ऋतु इन डारन वे फूल"। ओड़छे की राजसभा ने यहाँ तक पलटा खाया कि जिस राजवंश के लोग बंधुप्रेम में एक दूसरे पर प्राण निछावर करने को प्रस्तुत रहते थे, उन्हीं की गद्दो के अधिकारी अपने सहोदरी को विष देने लगे राजकुमार हरदेवसिंहजी* को उनके बड़े भाई ने


  • प्रकट हो कि विसूचिका के दिनों में इन्हीं हरदेव की पूजा दश-

देशांतर में रोगशांत्यर्थ होती है।