प्राचीन भाषाएँ वोल-चाल की भाषा से साहित्य की शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ। अतएव यह अनिवार्य था कि इस प्राकत पर संस्कृत का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता। इसी कारण शौरसेनी प्राकृत और संस्कृत में बहुत समा- नता देख पड़ती है। मागधी का प्रचार मगध (आधुनिक विहार) में था। प्राचीन काल में कुरु पंचाल तथा पश्चिम के अन्य लोग कोशल (अवध), काशी (बनारस के चारों ओर), विदेह ( उत्तर बिहार) और मगध तथा अंग (दक्षिण बिहार ) वालों को प्राच्य कहते थे । अघ भी दिल्ली मेरठ श्रादि के रहनेवाले इधरवालों को पूर्विया और यहां की भापा को पूरवी हिंदी कहा करते हैं। इन्हीं प्राच्यों की प्राच्या भाषा का विकास दो रूपों में हुआ। एक पश्चिम प्राच्या, दूसरी पूर्व प्राच्या। पश्चिम प्राच्या को अपने समय में बड़ा प्रचार था, पर पूर्व प्राच्या एक विभाग मात्र की भाषा थी। प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार हम पश्चिम प्राच्या को अर्ध-मागधी और पूर्व प्राच्या को मागधी कह सकते हैं। यह प्राचीन अर्धमागधी कोशल में वोली जाती थी, अतः बुद्धदेव की यही मातृ- भाषा थी। इसी से मिलती जुलती भारतवर्ष के पूर्व-खंडचासी पार्यों की भाषा थी जिसमें महावीर स्वामी तथा बुद्धदेव ने धर्मोपदेश किया था और जिसका उस समय के राजकुल तथा राजशासन में प्रयोग होता था। मध्य तथा पूर्व देशों में उपलभ्यमान एवं अशोक सम्राट के शिलालेखों में प्रयुक्त तथा उसके राजकुल की भाषा में भी इस अर्ध-मागधी भाषा की बहुत सी विशेषताएँ पाई जाती है। उस समय राजभाषा होने के कारण इसका प्रभाव अाजकल अँगरेजी की तरह प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं पर था। इसी से इस अर्ध-भागधी की छाप गिरनार, शहबाजगढ़ी तथा मानसेरा के लेखों पर भी काफी पाई जाती है। पिपरहवा का पान-लेख, सोहगौरा का शिलालेख तथा अशोक की पूर्वीय धर्मलिपियों एवं मध्य. एशिया में प्राप्त बौद्ध संस्कत नाटक के लुप्तावशिष्ट अंश इसके प्राचीनतम प्रयोगस्थल है। जैनों के "समवायंग" में लिसा है कि महावीर स्वामी ने अर्ध-मागधी में धर्मोपदेश किया और यह भाषा प्रयोग में आते पाते सभी प्रार्य, अनार्य, द्विपद, चतुप्पद, मृग, पशु, पक्षी, कीट, पतंग के हित, फल्याण तथा सुख के लिये परिवर्तित होती गई, अर्थात् इसी मूल भाषा से प्राणिमान की भाषा का जन्म हुआ। जान पड़ता है कि महावीर स्वामी ने इस भाषा को सर्वयोध्य बनाने के लिये तत्काल प्रचलित अन्य भाषाओं के सुप्रसिद्ध शब्दों का भी इसमें यथेष्ट सग्निवेश किया, जैसे कि श्राजकल के रमते साधु लोग भी धर्मोपदेश में ऐसी ही सिचड़ी भाषा फा प्रयोग किया करते हैं। ऊपर के अर्थवाद का रहस्य तथा अर्धमागधी
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