हिंदी भाषा करने की में अनुशा करता हूँ।" "अपनी भाषा" से युद्धघोप ने यहां मागधी भापा ली है। इससे प्रतीत होता है कि वुद्धदेव जान बूझकर संस्कृत का वर्जन करना चाहते थे और अपना धर्म देशमापा ही के द्वारा फैलाना चाहते थे। उसके श्रनंतर मध्य काल की प्राकृत और अंत में उत्तर काल की प्राकृत या अपभ्रंश का समय श्राता है। इसी उत्तर काल की प्राकृत या अपभ्रंश के अनंतर श्राधुनिक देशभाषाओं का प्रादुर्भाव हुआ है। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, पहली प्रारत या पाली के उदा- हरण हमें प्राचीन बौद्ध ग्रंथों तथा शिलालेखों में मिलते हैं। शिलालेसों में अशोक के लेख बड़े महत्त्व के हैं। ये खरोष्ट्री पहली प्राकृत या पाली " और ब्राह्मी दो लिपियों में लिखे हुए मिलते हैं। शहवाजगढी श्रीर मानसेरा के लेख तो खरोष्ट्री में लिखे हुए हैं और शेष सब ब्राह्मी लिपि में हैं। इन सब लेसों का विवेचन करने पर यह स्पष्ट प्रकट होता है कि अशोक के समय में कम से कम चार बोलियाँ प्रचलित थीं। उनमें से सबसे मुख्य मगध की पाली थी, जिसमें पहले पहल ये लेख लिखे गए होंगे, और उन्हीं के आधार पर गिरनार, जौगढ़ तथा मानसेरा के लेख प्रस्तुत किए गए होंगे। यद्यपि एक और शहवाजगढ़ी श्रीर गिरनार के लेखों की भाषा में और दूसरी ओर धौली, जौगढ़ श्रादि फे लेखों की भाषा में बहुत कुछ समानता देख पड़ती है, और इसी समानता के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह माना है कि अशोक के समय की पाली दो मुख्य भागों में विभक्त हो सकती है, तथापि इनमें विभिन्नता भी कम नहीं है। अतएव इन्हें एक ही कहना ठीक नहीं। पाली के अनंतर हमें साहित्यिक प्राकृत के दर्शन होते हैं। इसके चार मुख्य भेद माने गए हैं-महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और अर्द्ध- र मागधी। इनमें से महाराष्ट्री सबसे प्रधान मानी
- गई है। प्राकृत के वैयाकरणे ने महाराष्ट्री के
माश्त विषय में विशेष रूप से लिखा है; और दूसरी मारतों के विशेष नियत देकर यही लिख दिया है कि शेप सब पाते महाराष्ट्री के समान हैं। प्राकत का अधिकांश साहित्य भी महाराष्ट्री ही में लिसा मिलता है। एक प्रकार से महाराष्ट्री उस समय राष्ट्र भर की भाषा थी, इसलिये महाराष्ट्र शब्द समस्त राष्ट्र का बोधक भी माना जा सकता है। शौरसेनी मध्यदेश की प्राकृत है और शूरसेन देश (अाधु- निक प्रज मंडल) में इसका प्रचार होने के कारण यह शौरसेनी कहलाई। मध्य देश में ही साहित्यिक संस्कृत का अभ्युदय हुश्रा था, और यहीं की