पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२०४

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ललित कलाओं की स्थिति - २०५ रता, उन्नमन, अवनमन, सन्निकर्ष, विप्रकर्ष, छाया और प्रकाश आदि को यथायोग्य दिखाता है। वास्तविक पदार्थ को दर्शक जिस परिस्थिति में देखता है, उसी के अनुसार अंकन द्वारा वह अपने चित्रपट पर ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है जिसे देखकर दर्शक को चित्रगत वस्तु असल वस्तु सी जान पड़ने लगती है। इस प्रकार वास्तुकार और मूर्तिकार की अपेक्षा चित्रकार को अपनी कला के ही द्वारा मानसिक सृष्टि उत्पन्न करने का अधिक अवसर मिलता है। उसकी कृति में मूर्तता कम और मानसिकता अधिक रहती है। कोई ऐतिहासिक घटना या प्राकृतिक दृश्य को अंकित करने में चित्रकार को केवल उस घटना या प्राकृतिक दृश्य के बाहरी अंगों को जानना और अंकित करना आवश्यक नहीं होता, किंतु उसे अपने विचार के अनुसार उस घटना या दृश्य को सजीवता देने और मनुष्य या प्रकृति की भावभंगी का प्रतिरूप आँखों के सामने खड़ा करने के लिये, अपनी कूँचो चलाना और परोक्ष रूप से अपने मानसिक भावों का सजीव चित्र सा प्रस्तुत करना पड़ता है। श्रतएव यह स्पष्ट है कि इस कला में मूर्त्तता का अंश थोड़ा और मान- सिकता का मुख्य होता है। नीचे हम हिंदी साहित्य के क्रम-विकास के विभिन्न कालों में उत्तर भारत की चित्रकला की अवस्था का दिग्दर्शन कराएँगे। - अजंता की गुहाओं की उत्कृष्ट चित्रकला की शैली इस समय अध:पतित हो रही थी। बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ ही भारत में इस कला का जैसा अनुपम विकास हुश्रा था, आदि काल उसके हास के साथ ही उसकी भी अधोगति हुई। इसमें संदेह नहीं कि यौद्ध काल ही इस देश की चित्रकला का स्वर्ण युग था। फिर भी चित्रकला का यहाँ कुछ न कुछ प्रचार सदा बना रहा और वीच बीच में उसमें नवीन जागति भी देख पड़ती रही। तत्कालीन प्राकृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में अनेक स्थानों पर चित्रों का वर्णन पड़ी रमणीय रीति से किया गया है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि जनता की अभिरुचि उस ओर से सर्वथा हट नहीं गई थी। यही नहीं, उस समय चित्राधारों के बनवाने की भी रीति थी और चित्रकारों का समाज में श्रादर भी अधिक था। उस काल के तालपत्र पर लिखे कतिपय सचित्र जैन कल्पसूत्र एवं कालकाचार्य-कथानक मिले हैं जिनमें से एक पाटन (गुजरात) के पुस्तक-भांडार में रक्षित है। यह १२६४ वि० का लिखा है। इन कल्पसूत्रों श्रादि में जो चित्र है वे गुजरात के ही बने हैं एवं इस काल