पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२६५

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२६४ हिंदी साहित्य उठ खड़ा हुआ जिसका श्राधार परोक्ष सत्ता की एकता और लौकिक जीवन की सरलता हुा। जनता इस ओर यहुत कुछ सिंची। इन संत कवियों के संप्रदाय से भक्ति का जिस रूप में विकास हुश्रा, उससे लोकरंजन न हो सका। एक तो निर्गुण ब्रह्म स्वयं लोक- मन व्यवहार से अलग था; तिस पर कवीर श्रादि की " वाणी से उसमें और भी जटिलता सी श्रा गई। इन संत कवियों में विधि-विरोध की जो धुन थी उससे भी उच्छंसलता ही फेली। सभ्य समाज वेदों और पुराणों की निंदा सुनने को तैयार नहीं था, संभवतः इसी लिये संतों को निम्न समाज में ही अपनी वाणी का विस्तार करना पड़ा। यह सब होते हुए भी हमको यह न भूल जाना चाहिए कि हमारे संत कवियों ने परमार्थ तत्त्व की एकता का प्रतिपादन करके और सरल तथा सदाचारपूर्ण सामाजिक जीवन की व्यवस्था देकर हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर किया और उनमें परस्पर हेल-मेल चढ़ाया। इन संत कवियों के ही समय से हिंदी में सूफी कवियों की भी एक परंपरा चली जिसमें अधिकतर मुसलमान संत कवि ही सम्मिलित हुए। इन कवियों ने मारतीय अद्वैतवाद में प्रेम का संयोग करके बड़ी ही सुंदर और रहस्यमयी वाणी सुनाई। इस श्रेणी के कवियों ने अधि- कतर प्रबंधकाव्य के रूप में प्रेम गाथाएँ लिखी हैं। वे प्रेमगाथाएँ हिंदुओं से ही संबंध रखती है और पूरी सहानुभूति के साथ गाई गई है। व्यावहारिक जीवन में हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने में इन,कवियों ने विशेष सहायता पहुँचाई। इनकी रचनाओं में मानव मात्र को स्पर्श करनेवाली, मानवमात्र से सहानुभूति रखनेवाली उदार भावनाएँ थीं, जिनसे तत्कालीन सामाजिक संकीर्णता बहुत कुछ कम हुई। कबीर श्रादि संत कवियों के शुष्क निर्गुण ब्रह्म को भी इन कवियों ने बहुत कुछ सरस बना दिया, यद्यपि वह सरसता बहुत कुछ अस्पष्ट और रहस्य-मूलक ही रही। जहाँ एक भार हिंदू और मुसलमान सेतों तथा फकीरों की कृपा से हिंदुओं में नीच कहलानेवाली जातियों के प्रति उदारता बढ़ी और या मुसलमानो के प्रति द्वेष कम हुआ, वहाँ दूसरी " श्रीरामाचीन भक्ति-परंपरा का श्राश्रय लेकर कृष्ण- भक्ति और रामभक्ति का विकास भी उनमें हुआ। हम पहले ही कह चुके है कि महात्मा रामानंद ने "सीताराम" को अपना उपास्य देव माना था और अपनी अलग शिष्य-परंपरा चलाई थी, जिसमें रामो. पासना का ही प्राथय लिया जाता रहा। इसी प्रकार हम वल्लभाचार्य