साहित्य का इतिहास भावों,विचारों तथा चित्तवृत्तियों के विकास का इतिहास है और भाषा का इतिहास उन भावों, विचारों तथा चित्त- वृत्तियों के व्यंजन के ढंग का इतिहास है। जहां तक हो सका है, मैंने इस विभेद को ध्यान में रखकर इस पुस्तक के प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें मुझे कहाँ तक सफलता हुई है, यह विद्वान् समालोचकों तथा तथ्य-परीतकों के विचार की बात है। . इस पुस्तक के प्रस्तुत करने का विचार मैं कई वर्षों से कर रहा था, पर कार्य की अधिकता, समय के अभाव तथा सबसे बढ़कर अस्व- स्थता के कारण यह काम न हो सका। अब भी जो यह पुस्तक प्रस्तुत हो सकी, इसका अधिकांश अ य मेरे उन मित्रों को है जिन्होंने अत्यत उदारतापूर्वक इस कार्य में मेरी सहायता की है। साहित्य के तीसरे अध्याय की समस्त सामग्री राय कृष्णदास की कृपा का फल है और उसे सुचारु रूप से सजाने तथा उस निमित्त सत्परामर्श देने में राय- बहादुर महामहोपाध्याय पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा, बाबू काशी- प्रसाद जायसवाल, रायबहादुर बाबू हीरालाल, मिस्टर एन० सी० मेहता तथा डाक्टर हीरानंद शास्त्री ने जो मुझ पर कृपा की है, उसके लिये मैं इन मित्रों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। इसी प्रकार भाषा के इतिहास तथा साहित्य के अनेक अंशों को पढ़कर सत्परामर्श देने और आवश्यक सुधार करने की सम्मति देने के लिये मैं अपने सहा- ध्यापक पंडित केशवप्रसाद मिश्र का अत्यत अनुगृहीत हूँ। परंतु समस्त पुस्तक के लिये सामग्री के इकट्ठा करने तथा उसे सुचारु रूप से सजाने में मेरी जो सहायता मेरे प्रिय शिष्य नंददुलारे वाजपेयी ने की है, उसके लिये कदाचित् इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके बिना ग्रंथ न जाने कितने वर्षों तक मेरी विचार-गुफा में ही पड़ा रहता, उसे प्रकाश में आने का शोघ्र अवसर ही न मिलता। अंत में बाबू रामचंद्र वर्मा ने समस्त पुस्तक को आदि से अंत तक पढ़कर प्रेस-कापी तैयार करने तथा पंडित लल्लीप्रसाद पांडेय और उनके सहयोगियों ने उसके प्रफ- संशोधन में जो मेरी सहायता की है, उसके लिये मैं इन मित्रों को भी
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