पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४

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धन्यवाद देता हूँ। अनुक्रमणिका तैयार करने का श्रेय मेरे शिष्य जग-प्रसाद शर्मा को प्राप्त है। सारांश यह कि यदि इन मित्रों और शिष्यों आदि की उदार सहायता मुझे न प्राप्त होती तो यह मंघ अभी बहुत दिनों तक योही पड़ा रहता और प्रकाशित न हो पाता। इसलिये मैं पुनः इन सबके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता।

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इतना ही निवेदन करना है कि सन् १८९३ में जो हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास, हिंदी का कोश और हिंदी का व्याकरण प्रस्तुत करने का संकल्प मैंने किया था, वह इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ पूरा होता है। इनमें से प्रथम दो पुस्तकों के प्रस्तुत करने में मेरा हाथ रहा है और तीसरी पुस्तक पंडित कामताप्रसाद गुरु ने तैयार की है।

आशा है, यह इतिहास हिंदी भाषा और साहित्य का मर्म माने तथा उनके विकास का तथ्य अवगत करने में सहायक होगा।

काशी श्यामसुंदरदास
ज्येष्ठ कृष्ण ५, १८८७