पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३०८

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हिंदी साहित्य ___ यह सब होते हुए भी तुलसीदासजी ने जो कुछ लिखा है, स्वांतः सुखाय लिखा है। उपदेश देने की अभिलाषा से अथवा कवित्व प्रद- .र्शन की कामना से जो कविता की जाती है, (५) अातारक अनुभूति उसमें आत्मा की प्रेरणा न होने के कारण स्थायित्व नहीं होता। कला का जो उत्कर्ष हृदय से सीधी निकली हुई रचनाओं में होता है वह अन्यत्र मिलना असंभव है। गोस्वामीजी की यह विशेपता उन्हें हिंदी कविता के शीर्षासन पर ला रखती है। एक श्रोर तो वे काव्य-चमत्कार का भद्दा प्रदर्शन करनेवाले कवियों से महज में ही ऊपर आ जाते हैं और दूसरी और उपदेशों का सहारा लेनेवाले नीतिवादी भी उनके सामने नहीं ठहर पाते । कवित्व की दृष्टि से तुलसी की प्रांजलता, माधुर्य और ओज अनुपम तथा मानव-जीवन का सर्वाग निरूपण अप्रतिम हुआ है। मर्यादा और संयम की साधना में वे संसार के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इसके साथ ही जब हम भाषा पर उनके अधिकार तथा जनता पर उनके उपकार की तुलना अन्य कवियों से करते है तव गोस्वामीजी कीयथार्थ महत्ता का साक्षात्कार स्पष्ट रीति से हो जाता है। गोस्वामीजी की रचनाओं का महत्त्व उनमें व्यं जित भावों की विशदता और व्यापकता से ही नहीं, उनकी मौलिक उद्भावनानों तथा __ चमत्कारिक वर्णनों से भी है। यद्यपि रामायण (६) स्वतंत्र उद्भावना की फथा उन्हें महर्षि वाल्मीकि से धनी बनाई मिल गई थी, परंतु उसमें भी गोस्वामीजी ने यथोचित परिवर्तन किए हैं। सीता- स्वयंवर के पूर्व फुलवारी का मनोरम वर्णन तुलसीदासजी की अपनी- उभावना है। धनुप-भंग के पश्चात् परशुरामजी का श्रागमन उन्होंने अपनी प्रबंध-पटुता के प्रतीफ-स्वरूप रखा है। कितनी ही मर्मस्पर्शिनी घटनाएँ गोस्वामीजी ने अपनी शोर से सन्निहित की है, जैसे सीताजी फा अशोकवन में विरह-पीड़ित अवस्था में अशोक से प्राग माँगना और तत्क्षण हनुमानजी का मुद्रिका गिराना। हनुमान, विभीषण पार सुग्रीव आदि रामभकों का चरिम तुलसीदासजी ने विशेष सहानुभूति के साथ अंकित किया है। गोस्वामीजी के भरत तो गोस्वामीजी के ही हैं-भक्ति की मूर्ति। अपने युग की छाप भी रामचरितमानस में मिलती है जिससे वह युग-प्रवर्तक ग्रंथ बन सका है। कलियुग के वर्णन में उन्होंने सामयिक स्थिति का व्यंग्य- पूर्ण चित्र उपस्थित किया है। ये सब तुलसी की अपनी मालिफताएँ हैं जिनके कारण उनका मानस अन्य प्रांतीय भापानों में लिखे हुए रामकथा के ग्रंथों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और काव्यगुणो-