पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३४२

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३४२ हिंदी साहित्य रुचिकर हो अथवा वह व्यापक दृष्टि से साहित्य का विश्लेपण भले ही समझी आय, पर उससे रीति काल के कवियों ने जिन नियमों और शाला प्रतिबंधों को स्वीकार कर कविता की थी तथा कान्य के संबंध में उनकी जो धारणा थी उनका परिचय नहीं मिलता। जब हम इस प्रकार अपनी कसौटी पर दूसरों को परसते हैं तय हमारी कसौटी चाहे जितनी सरी हो, हम दूसरी के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सकते। इसका कारण स्पष्ट है। प्रत्येक देश और प्रत्येक काल के साहित्य की अलग अलग विशेपताएँ होती है। सामान्य रीति से यद्यपि साहित्य शब्द के अंतर्गत सार्थदेशिकता और सार्वकालिकता की भावना रहती है, पर समयानुक्रम से श्राए हुए अनेक नियमों और काव्य रीतियों का पालन भी सभी देशों के साहित्यकारों के लिये आवश्यक हो जाता है। भारतवर्ष के मध्यकालीन संस्कृत कवियों पर संस्कृत के रीति-ग्रंथों का इतना अधिक प्रभाव पड़ा था कि हम उनकी विवेचना तभी कर सकते है जव अलंकारशास्त्रों का श्रध्ययन करके हम उन कवियों की विशेषताओं को समझे। संस्त में कान्य- संबंधी इतने विभिन्न प्रकार के बाद प्रवाद चले और उनके अनुसार चलनेवाले कवियों ने उनका इतने कट्टरपन से पालन किया कि काव्य- समीक्षक को उन सभी कवियों की रचना-शैलियों श्रादि का अनुसंधान करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हो जाता है। हिंदी के रीति फाल के कवियों ने भी संस्कृत के अलंकार-शास्त्र का अनुसररा कर तथा थोडी यहुत स्वतंत्र उद्गावना कर सो रचनाएँ की हैं, उनको हम ठीक ठीक तभी समझेगे जय संस्कृत के विभिन्न काव्यसमीक्षक संप्रदायों का अन्वेषण कर यह देख लेंगे कि हिंदी के किन कवियों ने किस संप्रदाय का किस सीमा तक अनुसरण किया है। नीचे प्रति संक्षेप में संस्कृत कविता के विकास के साथ काव्यसमीक्षा-संप्रदायों के विकास का भी इतिवृत्त लिसा जाता है। संरत साहित्य में वाल्मीकीय रामायण सर्वसम्मति से श्रादि काव्य स्वीकार किया जाता है। उसकी रचना के पूर्व यदि कविता सस्कत साहित्य-शान हुई होगी तो यह श्रर प्राप्त नहीं है। वेदों को को समीक्षा काव्य ग्रंथ नहीं कह सकते, भारतीय परंपरा के अनुसार वे फान्य ग्रंथ हैं भी नहीं। वाल्मीकि के उपरांत यदि हम संस्कृत के प्रधान कवियों का अनुसंधान करें तो भास, कालिदास, अभयघोप, भारवि तथा माघ श्रादि मिलेंगे। इनमें से कुछ नाटककार तथा कुछ काव्यकार थे। नाटककार भी भारतीय