पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३४४

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हिंदी साहित्य कहें तो कह सकते हैं कि नाट्यशास्त्र के रस-निरूपण का मूल सून "विभा- वानुमायन्यभिचारिसंयोगाद्रसनिप्पत्तिः" है। इसका अर्थ यह हुआ कि विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव के संयोग से रस की निप्पत्ति होती है। इस सूत्र को समझाने की चेप्या अनेक प्राचार्यों ने अपने अपने ढंग से की है। यहाँ हम बहुत संक्षेप में कुछ प्रधान याते कहेंगे। हमारे चित्त में वासना रूप से अनेक स्थायी भाव अंतर्हित रहते हैं। कविता उन्हें उत्तेजित कर हमारे हृदय में एक प्रकार के अलौकिक श्रानंद का उद्रेक करती है। उत्तेजना के लिये विभाव, अनुभाव और संचारियों का उपयोग किया जाता है। नाटकों में अभिनय और शब्दों द्वारा तथा काव्य में केवल शब्दों द्वारा उत्तेजना का आयोजन किया जाता है। स्थायी भावों की संख्या नाट्य-शास्त्र में पाठ या नौ मानी गई है। रति, शोक, क्रोध, भय, उत्साह, जुगुप्सा, हास, विस्मय (और शम) इन्हीं से क्रमशः गार, करण, रौद्र, भयानक, चीर, बीभत्स, हास्य, अद्भुत (और शांत) रसां की निप्पत्ति होती है। इन रसों का काव्य में या नाटक में शेय नहीं प्रत्युत अशय रीति से विभाव अनुमाव श्रादि की अनुभूति या अनुगम से उसी प्रकार उद्रेक होता है जिस प्रकार चित्र के रंगों की सहायता से वास्तविकता की श्रनुरूपता उत्पन्न होती है। नाटकों में नायक नायिका तथा उनकी चेष्टाएँ विभाव के अंतर्गत भाती हैं। कुछ अनुभाव सात्त्विक भाव भी कहलाते है। सात्विक का अर्थ है शरीरजन्य। रोमांच, स्वेद, वैवर्य श्रादि शरीरधर्म है। संचारी या व्यभिचारी भाव अनेक हैं। क्षणिक होते हैं और स्थायी भावों को पुष्ट करने में सहायता पहुँचाते हैं। नाट्यशास्त्र में उनकी संख्या तेतीस कही गई है, पर साधारणतः चे प्रायः अपरिमित है। रस-पद्धति के संबंध में यह विवाद सबसे अधिक अनिर्णीत है कि रस-निप्पत्ति किसके आधार से होती है। अमिनवगुप्त आदि विद्वानों के विरुद्ध लोल्लट आदि का कथन है कि रस के आधार नायक और नायिका श्रादि है जो राम सीता श्रादि के रूप में अभिनय करते हैं। सामाजिकगण उन अभिनेताओं में राम और सीता की अनुकृति ही नहीं देखते-चे भावमग्न होकर उन्हें राम और सीता समझ लेते हैं। परंतु यह मत पिछले आलोचकों को स्वीकार नहीं है। वे सामाजिकों को ही रसनाही मानते हैं, उन्हीं के हृदय में रस की निप्पत्ति स्वीकार करते हैं। इस दृष्टि से 'विभावानुभावव्यभिचारिस'योगाद्गस. निष्पत्ति सूत्र भी ठीक वैठता है। रस ही काव्य की श्रारमा है, यह भरत तथा उनके अनुयायियों का मत है। धनंजय अादि पीछे के