पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३७२

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३७२ हिंदी साहित्य युग श्राया हुआ है। श्राशा की जाती है कि निकट भविष्य में ही इस सर्व- तान्याप्त हलचल के बीच में किसी दिव्यात्मा का उदय होगा जिससे हिंदी कविता की कल्याण-साधना होगी और जिससे अखिल भारतीय जन- समाज कोशेयमार्ग मिलेगा। ___ समस्यापूर्ति की प्रथा बहुत पुरानी है पर उसका इतना पाहुल्य कमी नहीं हुआ था जितना याजफल है। पहले पहल किसी भाषा में समस्यापति कविता करने की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिये समस्यापूर्ति का सहारा लेना लामकारक हो सकता है। यह साधनमात्र है, इसे साध्य का स्थान देना उचित नहीं। "समस्यापूर्ति से पूर्तिकारों की कवित्व-दर्प की वृत्ति भले ही तुष्ट हो जाय और कविसम्मेलनों के सभापतियों की यथोलिप्सा की पूर्ति भले ही हो जाय, पर उससे कविता का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि समस्यापूर्ति की प्रथा नई कविता को जन्म नहीं दे सकती। किसी पदांश या चरण को लेकर उस पर जोड़ तोड़ लगाकर एक ढाँचा खड़ा कर देना कविता की अधूरी नकल हो सकती है, पर कविता नहीं। कविता हृदय का व्यापार है; दिमाग को खुजलाकर उसका आह्वान नहीं किया जा सकता। जब तक किसी विषय में कवि की वृत्ति. न रमेगी, वह उसमें तल्लीन न होगा, तब तक उसके उद्गार नहीं निकल सकते। कृष्टि के सौंदर्य का अनुभव करके कवि जो श्रानंद पाता है, उसका विस्तार जब इतना हो जाता है कि वह उसे अपने हृदय में नहीं रोक सकता तब उसका भजन प्रवाह फूट पड़ता है। विना इस प्रवाह को रास्ता दिए उसके हृदय को चन नहीं मिलता। तुलसीदासजी के "स्वांतःसुखाय' का अर्थ इसी वेचैनी को दूर करना है। रामचंद्रजी के रूप, शक्ति और शील के जिस सौदर्य को वे अनुभव कर रहे थे उसका आनंद दूसरों को बांटकर देने के लिये ये विहल हो रहे थे, कवि बनने के सुख की प्राप्ति के लिये नहीं। यह विह्वलता क्या कभी उस समस्यापूर्ति- कार में हो सकती है, जिसे कल किसी कविसम्मेलन में जाकर कविता सुनाने की बड़ी उत्कंठा है और जो इसी लिये श्राधी रात तक सिर पर हाथ रखे बैठा है और यशप्राप्ति के लिये विह्वल है। कविता की जननी स्वार्थ नहीं, त्याग है। कविता में त्याग ही स्वार्थ है। रीतिकाल के केशव श्रादि कवि क्यों नहीं सफल हुए ? इसीलिये कि उनमें यह त्याग नहीं था, यह विद्यलता नहीं थी। उन्होंने पैसे के लिये, अपने श्राश्रय- दाताओं की रुचि की तुष्टि के लिये, उनकी चाटुकारी के लिये काव्य लिखे