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आधुनिक काल


शैलियां उपस्थित हैं, उनसे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि गूढ़ से गूढ़ भावनाओं के प्रकाशन में भाषा समर्थ है।

भाव और भाषा की तादात्म्य-प्राप्ति शैली के उत्कर्ष की परम सीमा है। लेखक इस दिशा में भी पदन्यास कर रहे हैं। राय कृष्णदास की 'साधना', प्रवाल और छायापथ, श्री वियोगी हरि की भावना और अंत- नाद, श्री चतुरसेन शास्त्री के अंतस्तल में इसी प्रकार के तादात्म्य का उन्मेप स्थान स्थान पर हुआ है।

घटनात्मक कथन की एक विशिष्ट प्रणाली का विचित्रतापूर्ण और व्यावहारिक रूप चावू प्रेमचंद की रचनाओं में दिखाई पड़ता है। दूसरी ओरभावात्मक तथा उन्मादपूर्ण भाव व्यंजना का एक रूप-विशेष "प्रसाद" जी की शैली में दिखाई पड़ता है। वाद विवाद और तार्किक कथन का श्रोजपूर्ण रूप भी इस काल में विशेषतः प्रयुक्त होने लगा है। इस प्रकार की शैलियाँ आज देखने में आ रही हैं जिनमें भाषण के गुणों की प्रधानता रहती है। एक ही विषय को यार यार दुहराकर फहना और भाव-भंगी की एक विचित्रतापूर्ण और चमत्कारयुक्त शैली का अनुसरण इस युग में विशेप वृद्धि पा रहा है। यों तो इने गिने आलो- चनात्मक लेख भारतेंदु हरिश्चंद्र ही के काल में लिखे जाने लगे थे, परंतु आधुनिक काल में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की विशेप चेष्टा से इस विषय का अधिक प्रचार बढ़ा और क्रमशः इधर लोगों की प्रवृत्ति भी होने लगी। फलतः श्राज पंडित रामचंद्र शुक्ल सरीखे गौरवपूर्ण श्रालोचना-लेखक उपस्थित हैं। नालोचना का सौष्ठवपूर्ण गंभीर विवे- चन जो शुक्लजी ने आरंभ किया है उससे विश्वास होता है कि शीघ्र ही श्रालोचना की यह चमत्कारपूर्ण, मनोवैज्ञानिक तथा तर्कनायुक्त शैली दृढ़ होकर एक विशेष रूप स्थिर करेगी।

तुलनात्मक आलोचना की शैली का पंडित पद्मसिंह शर्मा ने आविष्कार किया। वह वस्तुतः एक नई चीज थी। पंडित कृष्ण- विहारी मिश्र प्रभृति ने इस विषय को आगे बढ़ाया। शर्मा जी की शैली का अनुसरण अन्य लोगों ने न किया हो यह दूसरी बात है, परंतु यह शैली दृढ़ हो रही है। अभी तक गंभोर तुलनात्मक आलोचना पर कोई ऐसा सुंदर ग्रंथ नहीं प्रकाशित हुआ जिसे आधार माना जा सके। इसके अतिरिक्त श्राज अनेक विपयों पर अनेक ग्रंथ लिसे जा रहे हैं। इन विविध विषयों की शैलियों के विषय में अभी अधिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे परिपक्वावस्था को नहीं प्राप्त हुई हैं।